Friday, December 13, 2019

श्राद्ध

श्रद्धा से ही श्राद्ध की उत्पत्ति हुई है।श्रद्धा के
बिना कैसा श्राद्ध ? लेकिन यह हमारे समाज
की एक कुरीति है जिसका जीते जी कभी सम्मान नहीं किया जाता ,उसका श्राद्ध बड़े
धूमधाम से किया जाता है ,ऐसा दिखावा किस काम का?
हमारे पड़ोस में जानकी काकी का श्राद्ध बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा था।इक्यावन ब्राह्मणों के साथ, घर-परिवार , नाते-रिश्तेदार,मित्रगणों को भी निमंत्रण दिया गया था। हमें भी न्योता दिया गया था। पड़ोसी धर्म तो निभाना ही था।सो गए,कोई कमी नहीं छोड़ी थी सपूत ने मां के श्राद्ध में। पंडित आशीष लुटा रहे थे। भारी-भरकम दान-दक्षिणा के बदले में कुछ तो देना ही था।
मेरा मन वितृष्णा से भर उठा।सुबकती हुई जानकी काकी याद आ गई,कितनी उपेक्षा और कितना अपमान सहा था उन्होने ,बिस्तर
में पड़ी किस्मत को रोती रहती थी।दीनू काका ने बड़ी मेहनत से घर-संपत्ति बधाई दी।वैसे उनका नाम दीनदयाल था , लेकिन मैं
हमेशा दीनू काका ही बुलाती थी।एक ही बेटा था ,बड़े नाजों से पाला ,हर फरमाइश पूरी की। पढ़ने-लिखने में उसका मन न लगा तो उसका मनपसंद कारोबार जमा दिया।बड़े घर की बेटी बहू बना के लाए, लेकिन अरमानों पर पानी फिर गया ।लड़का पहले ही सेर था और बहू तो सवासेर निकली। सास-ससुर उसे बोझ लगने लगे।बस यहीं दीनू काका गलती कर गए कि समय रहते उन्हें अलग नहीं किया,पुत्र मोह जो था।घर में
बाप और बेटे के बीच ही बंटवारा हो गया।
बेचारे मां-बाप उपेक्षित से पड़े रहते ,दीनू काका जब तक थे ,तब तक स्थिति थोड़ी ठीक सी थी।बाप से संपत्ति जो नाम करानी थी,थोड़ी बहुत बोलचाल भी होती और काम करने नौकर -चाकर भी आते लेकिन एक दिन दीनू काका ऐसे सोए कि फिर न उठे।
  अब तो बेटे-बहू को स्वच्छंदता मिल गई थी। संपत्ति जो हाथ आ गई थी।बेचारी जानकी काकी एक तो बुढ़ापे में अकेली रह गई,ऊपर से घर के काम में उन्हें झोंक दिया गया।पूरा दिन काम करती, थोड़ा भी ऊपर -नीचे होता तो कोहराम मच जाता,पहले बहू और फिर बेटा दोनों चिल्लाते।उनकी कर्कश आवाज और वाणी का जहर मेरे घर तक आता।बेचारी काकी सुबक के रह जाती।
  काकी को चिकनगुनिया हुआ था , मैं उन्हें देखने चली गई तो बहू ने बुरा सा मुंह बनाकर कहा-सब बहाने हैं जी ,पड़े रहने के। बुढ़ापे में ऐसे पड़े रहेंगी तो हाथ -पैर जाम हो जाएंगे ,पर मजाल है कि किसी की सुन ले,बड़ी जिद्दी है।'मैं क्या कहती , मैं काकी को देखने उनके कमरे में चली गई।एक छोटी सी खाट पे हड्डियों का ढांचा लेटा था,बुखार से मुंह लाल हो रहा था।कमरे में न जाने कबसे झाड़ू नहीं लगी थी।एक कोने में मैले कपड़ों का जमघट लगा था।जमीन पे जूठे बर्तन पड़े थे।दवाई के नाम पर बुखार उतारने की गोली रखी थी।
मैंने हौले से उनके सिर पर हाथ रखा तो उन्होंने आंखें खोली-कैसी हो काकी ! बुखार तो अभी भी है आपको।खाया कुछ सुबह से आपने!
खड़ा ही नहीं हुआ गया, बहुत दर्द है जोड़ों
में।देखूंगी कुछ बचा पड़ा होगा तो .. आंखों से अश्रुधारा बह रही थी। मैं बना दूं कुछ..
अरे नहीं तुम बैठो।
पता नहीं उनकी बहू कान लगाए खड़ी थी क्या,तुरंत कमरे में आई ..हम क्या भूखा मारते हैं तुम्हें जो बाहरवालों को दुखड़ा सुना रही हो, तुम्हारे इन्हीं कर्मो के कारण तुम्हारे पास खड़े होने का मन नहीं करता।यह सुन मैं वहां से चली आई।इस बात को एक हफ्ता
ही हुआ था ,पता चला कि काकी को लकवा मार गया ,उनकी कामवाली बाई सब बताती
थी ।मेरी तो फिर वहां जाने की हिम्मत नही हो रही थी लेकिन फिर भी गई,आखिर बचपन से काकी से लगाव जो था,इस बार तो देखा ही नहीं गया,कमरा बदबू से भरा था। बेहोशी की हालत में पड़ी थी काकी! मैं
यह दृश्य देख न सकी और घर आकर सोचने लगी क्या करूं? अस्पताल में फोन किया और एंबुलेंस बुलाई ,वे लोग आए तो मैं भी बाहर आ गई लेकिन बहूरानी ने कहा दिया कि हमने उन्हें अस्पताल भेज दिया है। एंबुलेंस वापस चली गई।सुबह मैंने बाई से पूछा तो पता चला कि हां शायद भेज दिया मुझे तो नहीं दिखी और फिर दो-तीन दिन बाद ही निधन की खबर आई।तब भी खूब दिखावा किया और आज भी खूब दिखावा कर रहे हैं । मैं मिलकर और हाथ जोड़कर चली आई ।उस भोजन का ग्रास में कैसे ग्रहण कर सकती थी , जिसमें काकी की अथाह वेदना निहित थी।

अभिलाषा चौहान




6 comments:

  1. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१४-१२-२०१९ ) को " पूस की ठिठुरती रात "(चर्चा अंक-३५४९) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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    1. सहृदय आभार सखी,सादर🙏🌷

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  2. बेहतरीन प्रस्तुति

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    1. सहृदय आभार बहना🙏🌷

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  3. आज के समय की यही दशा हैं सखी ,ऐसा दिखावा आज हर हर में मिल रहा हैं ,अभी अभी मैंने भी कुछ ऐसा ही दृश्य देखा हैं ,सजीव चित्रण किया हैं आपने ,सादर नमन

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    1. सहृदय आभार सखी,सच में कितनी कुरीतियों से ग्रस्त है हमारा समाज 🙏🌷

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