Sunday, December 29, 2019

अनजान रास्ता

सौम्या यही नाम था उसका,हमारे पड़ोस में रहने वाले तिवारी जी की बेटी थी।आज उसे घर लाया जा रहा था, कहां से? कहीं बाहर गई थी क्या सौम्या? हां, पिछले कई दिनों से दिखी भी नहीं थी। मैंने पूछा भी था,तो टाल-मटोल वाला जबाव मिला था, लेकिन आज सारी कहानी सामने थी। आठवीं में ही पढ़ती थी सौम्या! बड़ी चुलबुली और प्यारी बच्ची थी। सुंदर भी इतनी कि देख कर मन नहीं भरता था।बस यही बात उसकी दुश्मन बन गई।पता नहीं किसने उसे बरगलाया या फुसलाया कि कच्ची उम्र में वह प्रेम के सपने देखने लग गई। पढ़ाई से उसका ध्यान हट गया।आप सोच रहे होंगे कि मुझे यह कैसे पता?मैं सौम्या के स्कूल में ही टीचर थी।उसे पढ़ाती तो नहीं थी,पर हम शिक्षक जब एक साथ लंच वगैरह करने बैठते तब उसकी क्लासटीचर जरूर मुझसे उसके बारे में डिस्कस करती थी। यह बात मैंने तिवारी जी से भी कहीं थी ,पर उन्होंने अनसुनी कर दी।आखिर उन्हें अपने बिजनेस और उनकी मिसेज को किटी पार्टी से फुर्सत ही कहां थी? और फिर सौम्या लापता हो गई , बहुत पूछ-ताछ की गई कि सौम्या के बारे में..पर तिवारी जी ने पैसे का जोर दिखाकर पुलिस वालों को भी चुप कर दिया, लेकिन ऐसी बातें छुपती है भला? उड़ती-उड़ती खबर हर जगह थी कि सौम्या किसी के संग भाग गई..बदनामी के डर से इस बात को खूब दबाया गया।पर मुझे पूरा भरोसा था कि सौम्या किसी मुसीबत में घिर गई है और आज सौम्या घर आ रही है। उससे मिलने की बड़ी इच्छा थी।वह मासूम बच्ची जब गाड़ी से उतरी तो उसकी स्थिति उसका दर्द बयान कर रही थी।उसने एक नजर उठा कर मुझे देखा.. आंखों में आंसू छलक रहे थे,ऐसा लग रहा था कि वह न जाने कबसे रो रही होगी! चेहरे पर चोट के निशान भी स्पष्ट दिख रहे थे। तिवारी जी उसे लेकर घर के अंदर चले गए।मेरा मन उससे मिलने को बेताब था। लेकिन कैसे? कुछ दिन और निकल गए.. सौम्या स्कूल भी नहीं आई..घर से बाहर भी नहीं निकली,एक अजीब सा सन्नाटा उनके घर पसरा था,आखिर मन नहीं माना और मैं उनके घर चली गई..आप यहां कैसे?क्या कुछ काम था!सौम्या की मम्मी पूछ बैठी। जी!स्कूल में सभी सौम्या के बारे में पूछ रहे हैं,आप उसे स्कूल भेजिए।आखिर ऐसी क्या परेशानी है?अगर कुछ हुआ भी है तो उसे बदलने की कोशिश कीजिए।इस तरह तो बच्ची घुट जाएगी। सौम्या की मम्मी मेरी बातों को सुनकर स्तब्ध रह गई-क्या आपको पता है? नहीं!पर ऐसी बातें छुपती नहीं।अगर आप अपनी बच्ची से प्यार करती है तो उसका सपोर्ट सिस्टम बनिए ,नकि उसे जिंदगी से दूर एक कैद भरी जिंदगी जीने को मजबूर कीजिए। सौम्या की मम्मी फूट-फूटकर रोने लगी। मैंने उनके आंसू पोंछे और हिम्मत से काम लेने को कहा और सौम्या से मिलने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने एक कमरे की और इशारा किया। मैं कमरे में पहुंची।सिकुड़ी-सिमटी सौम्या बिस्तर पर डली थी,जैसे बरसों से बीमार हो,ऐसा लग रहा था कि कोई गुबार उसके मन से उमड़ने को बेताब था। सौम्या!बेटा मैं आई हूं,उठो जरा, बात करनी है तुमसे! वह उठी.. आंखों के नीचे स्याह घेरे,पलकें सूजी हुई,होठ़ सूखे हुए,उलझे बाल,डर से कुम्हलाया मुख। देखकर दिल दहल उठा। ये क्या हाल बना रखा है तुमने,देखा है अपने को आइने में,सब तुम्हारे बारे में पूछते हैं स्कूल में,पढ़ना नहीं है क्या आगे? आंटी !साॅरी मैम!मेरी कोई गलती नहीं थी।बस मैं भटक गई थी और एक अनजान डगर पर चली गई थी।कहते हुए वह फूट-फूट कर रोने लगी। रो लो बेटा!जब शांत हो जाए मन तो बताना कि तुम्हारे साथ क्या हुआ? मैम!वह स्कूल के रास्ते में रोज मिलता था।बस मुझे एकटक देखता रहता,मुझे बहुत अच्छा लगता था,सब मुझे सुंदर जो कहते थे।बस यही मेरी गलती है कि मैं उसके आकर्षण में बंधती चली गई।वह मुझसे मीठी-मीठी बातें करने लगा।मुझे नहीं पता था कि दुनिया कितनी खराब है, मैं उसकी बातों में उलझती चली गई,हम रोज मिलते,वह कहता कि दुनिया बहुत सुंदर है और तुम इस दुनिया को अपनी सुन्दरता से जीत सकती हो।तुम कुछ नया करो।मुझे नहीं पता था ,पर शायद उसने भांप लिया था कि मुझे कैसी बातें सुनना पसंद है।और फिर एक दिन उसने कहा कि यहां क्या रखा है तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें इस खूबसूरत दुनिया की सैर कराऊंगा। बहक गई थी मैं,उसके कहने पर घर में चोरी की,खूब सारे पैसे और कपड़े बैग में भरकर उसके साथ निकल गई "अनजान डगर"पर।वह मुझे यहां-वहां घुमाता रहा।उसने मेरे साथ जबरदस्ती की।मेरे पास कोई चारा नहीं था।उसकी बातों को मानने के अलावा।घर पर फोन करने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि मम्मी-पापा शायद मेरी बात नहीं समझते और फिर एक दिन हमारे पैसे खत्म हो गए।उस रात को हम भूखे ही सो गए थे ।रात के बारह बजे वह कुछ खाना और कोल्डड्रिंक लेकर आया।मैंने पूछा -इतनी रात को ये सब!हां मुझे भूख के कारण नींद नहीं आ रही थी सो होटल वाले से उधार ले आया।हमेशा की तरह उस पर विश्वास कर लिया। लेकिन मुझपर बेहोशी छा रही थी।फिर मैंने महसूस किया कि पूरी रात मेरे साथ दरिंदगी का खेल खेला गया। मैं बेजान लाश सी पड़ी थी।सुबह उठा ही नहीं जा रहा था। मैंने उससे पूछा-क्या हुआ रात मेरे साथ?इतना दर्द क्यों? वह कुटिलता से हंसा और चला गया। मैं दर्द से तड़पती बिस्तर पर डली थी,तभी एक हट्टा-कट्टा मर्द कमरे में घुसा।उसे देख मैं चीखी।उसे आवाज लगाई।पर वह न आया। मैंने विरोध करने बहुत कोशिश की,पर हार गई। फिर तो यह सिलसिला ऐसा चला कि मैं बिस्तर से ही लग गई,वह दिन में दो-तीन लोगों को ले आता, पैसे गिनकर जेब में रखता और मुझे उनके हवाले कर देता।मनचाहे तरीके से वे मेरे शरीर को नोंचते-खसोटते।उस दिन मैंने हिम्मत करके उससे पूछ ही लिया-ये है तुम्हारा प्यार,तुम्हारे ऊपर भरोसा करके ,तुम्हारा हाथ थाम कर मैं इस अनजान डगर पर चली आई और तुमने मुझे वेश्या बना दिया।ऐसा क्यों किया? वह कुटिलता से हंसा।प्यार और मैं,इससे पेट नहींभरता,उसके लिए पैसा चाहिए और पैसा कमाने का ये आसान उपाय है। चुपचाप वही कर जो मैं कहूं। नहीं तो बेच दूंगा तुझे कोठे पर।समझ ले यही मेरा प्यार है कि तू अभी तक यहां है,ऐसी न जाने कितनी अभी तक कोठे पर पहुंच गई है और गुमनामी की ज़िंदगी जी रही हैं। जितना खुश होके तू ये सब करेगी ,उतना ही पैसा ज्यादा मिलेगा।देख तेरी सुंदरता के सही दाम लगवा दिए मैंने,ये रख पैसा कस्टमर आने को है ,टिपटाप हो जा। मैं पत्थर बन गई थी।अब तो घर वापस आने का भी कोई फायदा नहीं था। मां-बाप को तो शायद इज्जत ज्यादा प्यारी थी ,सो उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं कराई थी शायद।यही सोच हथियार डाल दिए।वह मेरा भरपूर उपयोग कर रहा था।अब वह मुझे कस्टमर के साथ बाहर भी भेज देता।उसी चक्कर में होटल पर पड़ी रेड में , मैं पुलिस वालों के हाथ लग गई, उन्होंने मुझसे सब पूछा तो मैने बता दिया।तब मम्मी-पापा को बुलाकर उन्हें सौंप दिया गया।पता नहीं कितने लोगों ने मेरी आत्मा को कुचला आंटी! कहते-कहते वह मेरे गले लग गई।मिसेज तिवारी यह सब बाहर खड़ी सुन रही थी ,बेटी की दर्द भरी दास्तान ने उनकी रूह को झिंझोड़ कर रख दिया।दौड़कर अंदर आई-मेरी बच्ची!माफ़ कर दे।तू इस मुसीबत में हमारे कारण फंसी।यदि हमने तुझे इन अनजान रास्तों से वाकिफ कराया होता या तेरा भरोसा जीता होता तो तुझे ये कष्ट न झेलना पड़ता। मां-बेटी फूट-फूटकर रो रहीं थी। थोड़ी देर बाद सब शांत हुआ।देखिए !मुझे आपसे यही कहना है कि आप इसके साथ हर कदम पर खड़ी रहें।इसकी मनोदशा को समझें, कोशिश करें कि वह उस दर्द या तकलीफ को जल्दी भूल जाए और फिर से अपनी जिंदगी की शुरूआत कर सके।यह उस दर्द से जितनी जल्दी अनजान हो जाए, वही इसके लिए बेहतर है।बेटी मां की गोद में दुबकी हुई थी।और मां उसके दर्द को अपने आंचल में समेटरही थी।मैं आंखों में उम्मीद लिए वहां से चली आई थी।बस एक सवाल मन को बैचेन कर रहा था-कि "ये अनजान रास्ते कबतक मासूम बेटियों की जिंदगी को जहन्नुम बनाते रहेंगे।"

Friday, December 27, 2019

रिश्तों की पोटली

सुबह से रमा अपने कमरे में बैठी एक तस्वीर को निहार रही थी।अभी तक किसी ने भी
फोन पर उनका हालचाल नहीं पूछा था।ऐसा लग रहा था कि स्वार्थ के कारण सारे रिश्ते भी दम तोड़ चुके थे।
मात्र अठारह की थी रमा,जब वह इस घर में
ब्याह कर आई थी,कितने सारे रिश्ते उसकी
झोली में आ गए थे। बेटी से पत्नी बनते ही वह,बहू,भाभी,मां,जेठानी-देवरानी न जाने कितने रिश्तों में बंध गईं।उसने हर रिश्ते को
बड़ी खूबसूरती से निभाया , लेकिन सबकी
खुशी में अपनी खुशी ढूंढने वाली रमा सदा
अपने दुख में अकेली रही।पति की जैसी आय होती है,पत्नी का वैसा ही सम्मान होता है।अपने तीनों भाईयों में उसके पति की आय
सबसे कम थी।घर में हर बात में इसकी तुलना जरूर होती। सास-ससुर भी बातों-बातों में उलाहना जरूर देते-"अरे हम तो नौकरी वाली चाहते थे, कहां से ये पल्ले पड़
गई।हमारे बेटे की नौकरी अच्छी नहीं थी,सोचा था दोनों कमाएंगे तो गृहस्थी की
गाड़ी अच्छी चल जाएगी।"
वह हंसते हुए कह देती-आप क्यों चिंता करती हैं मांजी ,हम नमकरोटी खाकर भी
सदा खुश रहेंगे।
समय निकला। दोनों बड़े भाई अलग हो गए।
अब उनके बच्चे बड़े हो गए थे, उन्हें अब किसी की जरूरत नहीं थी। सास-ससुर उसके ही साथ थे।ननदें भी अब तीज-त्योहार
को ही आती ।उसके दोनों बच्चे इंजीनियरिंग
कर रहे थे। दोनों की अच्छी जाब लगी और
दोनों विदेश चले गए। सास-ससुर की अवस्था ठीक नहीं थी,रमा और उसके पति
उनकी देखभाल करते रहे।कोई उनकी खबर
लेने भी नहीं आता।सास की निगाहें द्वार पर
टिकी रहती कि शायद उनके बड़े लड़कों या
लड़कियों में कोई मिलने आए और जब निराश हो जाती तो सारा गुस्सा रमा पर निकल जाता कि उसने ही सबको रोक दिया
है आने से।
अब रमा की सहनशक्ति जवाब देने लगी थी।पति अक्सर बीमार रहते।ससुर जी शांत हो
चुके थे और सासु मां और भी चिड़चिड़ी।
वह चुपचाप पति और सास की सेवा में लगी
थी। बच्चों के फोन आते -मम्मी! बहुत हुआ
अब ,दादी को ताऊजी के छोड़ दो,आप पापा को लेकर हमारे पास आ जाओ।पापा
के लिए इतना टेंशन ठीक नही।"
लेकिन वह कैसे छोड़ दें?आगे से तो कोई उन्हें ले जाने को तैयार नहीं था और एक
दिन सासू जी भी चली गई ईश्वर के पास।
पूरा कुनबा जुटा।दुख कम .. संपत्ति को लेकर विचार-विमर्श ज्यादा।कितना क्या
छोड़ गए हैं ,इस पर अटकलें लगीं,पुश्तैनी
जमीन-जायदाद के हिस्से बांट होने लगे।
बड़े भाई मकान बेच कर पांच हिस्सों में
बांटने की बात करने लगे थे।
उसके दोनों बच्चे भी आए थे ,बोले-मम्मी-पापा अब भी यहीं रहना है,या चलना है
हमारे साथ।
हां!हां बेटा ले जाओ इन्हें,अब तबियत भी
ठीक नहीं रहती, यहां अकेले पड़े-पड़े क्या
करेंगे।अब इतने बड़े घर को रखने से तो
कोई फायदा नहीं।
मकान-जमीन सब बिका।हिस्सा -बांट हुआ।
और सब चल दिए अपने रास्ते पर।पति यह
सब देख-सुन बहुत टूट से गए थे।एक दिन
बोले-रमा!माफ़ कर सकोगी मुझे!मैं तुम्हें
जीवन की कोई खुशी नहीं दे पाया।रिश्तों
के जाल में ऐसा उलझाया कि न तुम अपने
लिए जी सकीं ,न मेरे लिए।काश!
क्या कह रहे हो जी!देखो मुझे लगता है मैं
दुखी हूं,अरे मैंने तो हर रिश्ते को भरपूर जिया
और जीवन का खूब आनंद उठाया।अरे अगर
हर कोई रिश्तों में स्वार्थ ढूंढने लगे तो फिर यह दुनिया तो रहने लायक ही नहीं रहेगी।बस अब आप ठीक हो जाओ।
बच्चों के पास आकर पति के स्वास्थ्य में
बहुत सुधार आया था। धीरे-धीरे सब कुछ
ठीक हुआ। दोनों बच्चों के विवाह हो गए।
लड़की ससुराल चली गई।प्यारी-सी बहू आ
गई।एक दिन पुरानी संदूक को साफ करते
हुए वह तस्वीर निकल आई।बड़े जतन से
रमा उस तस्वीर को पोंछ रही थी।अरे मम्मी!
ये किसकी तस्वीर है?दिखाओ।
फोटो देखकर वह पूछने लगी-ये इतने सारे लोग कौन है,मम्मी !अरे आप और पापा कितने सुंदर लग रहे हो।
रमा हंसते हुए बोली-ये सब अपने हैं बेटा!जब मेरा विवाह हुआ था तो मेरी झोली में
ये सारे रिश्ते आए थे।ये मेरी पूंजी है,जब बीते
दिनों की याद आती है तो इन्हें सहेज लेती हूं। कितने अच्छे थे वे दिन।
और मम्मी ये लाल कपड़े की पोटली में क्या
है?दिखाओ न प्लीज।
इसमें देख ले बेटा!ये गठजोड़ा है,इसी को पहने हुए मैंने तेरे पापा के साथ उस पुश्तैनी घर में प्रवेश किया था, जहां मुझे एक भरा-पूरा परिवार मिला था,अनमोल रिश्ते मिले थे,
ये बात और है कि वक्त के साथ इन सबपर स्वार्थ की धूल चढ़ गई और शायद ये सब हमें
भूल गए।
अरे मम्मी आप तो दुखी हो गई!चलो मैं आपको नाश्ते के लिए बुलाने आई थी।
हां चलो बेटा!कहते हुए रमा ने रिश्तों की पोटली को सहेजकर वापस रख दिया।उसकी आंखों की कोर पर एक आंसू की बूंद
झिलमिला रही थी।




सनक

राघवन की सनक से पूरा शहर वाकिफ था।
पहले वे सनकी या पागल कहलाते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने उनकी सनक का सम्मान करना शुरू कर दिया।आखिर उनकी
सनक का राज क्या था और क्या थी उनकी सनक ,जिसके लिए उन्हें कई सम्मान भी मिल चुके थे।
राघवन की उम्र उस समय कोई अटठावन साल की रही होगी,जब उनके जीवन में वह
काला दिन आया।उनका तीन प्राणियों का छोटा-सा परिवार था।वे,उनकी पत्नी और पुत्र। सब कुछ बढ़िया चल रहा था।वे स्वयं
दो साल में रिटायर होने वाले थे ।पुत्र साफ्टवेयर इंजीनियर बन कर मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत था।अब उसके विवाह की
तैयारियां चल रही थी। परिवार में जमकर खुशियां बरस रहीं थीं।कहते हैं ना- कि खुशियों को नजर लग जाती है, यहां भी वही
हुआ।बारिश के चलते शहर की सड़कों पर
गड्ढे हो गए थे और दुर्घटनाएं बढ़ गई थीं।उस दिन जमकर बारिश हुई थी ,राघवन का पुत्र
चैतन्य आफिस में फंसा हुआ था ।बारिश बंद
होने पर उसने मोटरसाइकिल निकाली और
घर की ओर चल पड़ा,पानी के जमाव के कारण गड्ढा नहीं दिखा और वह दुर्घटना ग्रस्त
हो गया।महीना भर कोमा में रहने के बाद उसने सदा के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया।राघवन और उनकी पत्नी पत्थर बन गए थे।इकलौते पुत्र को खोने का सदमा क्या होता है ,यह उन्हें देखकर ही समझा जा सकता था।उनकी पत्नी अपना होशोहवास खो चुकी थी।राघवन को पत्नी को सम्हालने के लिए अपने सीने पर पत्थर रखना पड़ा। लेकिन उनका मन अवसाद से घिर गया था।
सड़क का हर गड्ढा उन्हें अपने पुत्र का हत्यारा प्रतीत होता।ऐसे में उन्होंने एक प्रण लिया कि वे सड़क के हर गड्ढे को अपने खर्चे स्वयं ही भरेंगे।अब जहां भी कहीं गड्ढा दिखता ,राघवन वहां अपनी गाड़ी लेकर पहुंच जाते और सामान निकालकर गड्ढा भरने लगते।लोग उन्हें सनकी कहते ,मजाक बनाते , यहां तक कि पागल भी कह देते। धीरे-धीरे लोगों को उनकी सनक का उद्देश्य पता चला तो सभी उनका सम्मान करने लगे।
उनका साथ देने के लिए कई लोग भी आगे
आने लगे।न जाने कितनी जिंदगियां उजड़ने
से बच गई।राघवन सनकी नहीं थे,पर अपने बेटे की मृत्यु से उन्हें जीवन का एक लक्ष्य मिल गया था।किसी और के घर का चिराग ये सड़कें ना लीलें,वे अपनी और से पूरा प्रयास कर रहे थे।यही उनकी अपने बेटे को
सच्ची श्रद्धांजलि थी।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

(सत्य घटना पर आधारित)

Friday, December 20, 2019

हार्ट अटैक

पड़ोस के घर में अफरातफरी का माहौल देख रमेश जी वास्तविकता जानने के लिए
जा पहुंचे।पता चला कि शर्मा जी को हार्ट अटैक आया था और एंबुलेंस से उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था।पड़ोसी धर्म
निभाते हुए रमेश जी भी साथ चले गए।
डाक्टर ने चेकअप के बाद स्पष्ट कर दिया कि माइनर हार्ट अटैक था,लेकिन संकट टला
नहीं है,आगे क्या करना ये संपूर्ण जांच के बाद ही पता चलेगा।
शर्माजी होश में आ चुके थे ।रमेशजी को देखते ही बोले-बरबाद हो गया यार,तेरी बात
नहीं मानी और आज यहां पहुंच गया।
क्यों क्या हुआ,कौनसी बात नहीं मानी तूने
यार!
तूने पेपर नहीं पढ़ा आज का ,अरे!वो कापरेटिव बैंक जिसमें तूने पैसा जमा करने के लिए मना किया था।उसपर ताला लग गया यार!धोखा हो गया मेरे साथ।सारी जमा-पूंजी डूब गई।
क्या?? मुझे नहीं पता।कब हुआ ये ?
शर्माजी पछता रहे थे। बार-बार एक ही बात
दोहरा रहे थे कि तूने सच कहा था कि इनमें
इन्वेस्ट मत कर ।आजकल बहुत फ्राड हो रहा है। इसमें पैसा लगाना,आ बैल मुझे मार
वाली कहावत चरितार्थ करना है।मैंने नहीं सुना।
रमेशजी चुप थे।क्या कहते !बस इतना ही बोले तू अपनी तबियत देख।ये सब मत सोच।अब मैं जाता हूं, शाम को आऊंगा।
लौटते हुए वे यही सोच रहे थे कि लालच
और गलत लोगों के फेर में पड़कर आदमी
स्वयं का कितना नुक्सान कर लेता है जबकि
आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती है।पर जल्दी समय में ज्यादा लाभ के फेर में आ बैल मुझे मार को आमंत्रित करना तो मूर्खता
है।

अभिलाषा चौहान


बोझ

रमा की आंखों से आंसू बहना बंद नहीं हो रहे थे।वह पढ़ना चाहती थी,जीवन में कुछ
बनना चाहती थी,पर घरवाले तो जैसे कुछ
सुनना ही नहीं चाहते थे।उसकी हर बात पर
घर में तू-तू-मैं-मैं होने लगती।अभी दसवीं की
परीक्षा दी है उसने और बापू हैं कि ब्याह के पीछे पड़े हैं।रोज उसकी भावनाओं की हत्या
हो रही थी।
और वह दिन भी जल्दी आ गया ।दस साल बड़े एक व्यक्ति को उसके जीवनसाथी के
रूप में चुन लिया गया था।वह छोटी सी दुकान चलाता था।रमा हंसना भूल गई थी।
इससे घर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह क्या सोचती है,बस अपना बोझ दूसरे के गले में बांधने की तैयारी हो रही थी।
विवाह हुआ ,वह दुल्हन बन के आ गई। यहां
भी वह सिर्फ उपभोग की वस्तु थी।दिनभर काम और रात को पति की इच्छाओं की पूर्ति,ऊपर से दहेज की मांग ।
रमा समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे?
क्या बनना चाह रही थी और क्या बन गई।
अब तो रोज घर में झगड़े और होने लगी।दहेज की मांग बढ़ती जा रही थी।पिता तो पल्ला झाड़ बैठे थे ,अब रोज उसकी कपड़ों की तरह धुलाई होती।उसके आंसू देखने वाला कोई नहीं था।घर के सभी लोग उसे ताना मारते।पति तो हैवानियत की हदें पार
कर चुका था।रमा एक जिंदा लाश बन गई थी।आखिर में तंग आकर उसने फांसी लगा
ली।इस बात को परिवार वालों ने किसी तरह
दबा दिया।सब जगह अफवाह फैला दी कि
बीमार थी। आनन-फानन उसका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। माता-पिता भी
आए उसके और ससुराल वालों की बात को
सच मान बैठे।आज रमा को गए एक साल हो गया।उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया। किसी को क्या फर्क पड़ा?कौन था रमा का हत्यारा?ये समाज या उसके माता-पिता या ससुराल वाले?

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक



बचत

अचानक हुई नोटबंदी से हजार-पांच सौ के नोट बैंक में जमा कराने के लिए लंबी-लंबी कतारें लगी थी।रमेश के पास भी कोई दस हजार रुपए थे ,उसने बड़ी मुश्किल से वे बैंक में जमा करवा पाए थे।उसके आफिस में यह 
बात रोज ही होती रहती थी।सभी परेशान थे क्योंकि उनकी नजर में जो धनराशि थी ,वह उन्होंने जमा करवा दी थी,पर इन पत्नियों का क्या?

अशोक जी बेचारे परेशान थे कि कल उनकी पत्नी ने पचास हजार निकाल कर रख दिए ,अब बताओ इतने पैसे कहां से आए उसके पास,सो नहीं बता रही!सब यही बातें कर रहे थे।रमेश सोच रहा था कि वह बच गया उसकी पत्नी के पास कोई बचत नहीं है।उसने पूछा कि आप लोगों की पत्नियों के पास इतना पैसा कहां से आया?एक-दो लोग बोले कि हमारी पत्नियां तो जाॅब करती है।बाकी बोले कि -वे घर खर्च से बचा लेती हैं।

अच्छा!पर मेरे घर में तो मेरी पत्नी ने घर खर्च में से कुछ भी नहीं बचाया।अभी लोन की एक किश्त बाकी थी,तब मांगे मैंने उससे तो बोली-गिन कर तो देते हो ,उसमें क्या बचेगा!और मैं उन पत्नियों की तरह नहीं हूं,जिनकी नजर सदैव पति के बटुवे पर रहती है।

'हां यार ! मैंने तो कई बार पकड़ा है अपनी पत्नी को बटुवे पर हाथ साफ करते हुए' दीप मुस्कराकर बोला।बटुआ पुराण चलते-चलते पांच बज गए।सभी ने अपने-अपने घरों की ओर रूखसत किया।

रमेश घर पहुंचा तो पत्नी जी को बैचेनी से टहलते पाया।पूछने पर कुछ न बोली ।रमेश को कुछ समझ में न आया तो पूछा-तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी!आज चेहरे का रंग क्यों उड़ा हुआ है।

वे चुप रहीं ,फिर थोड़ी देर बाद एक बंडल सा लेकर उसके पास आई और पकड़ा दिया। ये क्या हैं? कहां से आया?

रमेश ने यह कहते हुए बंडल के ऊपर से कपड़ा हटाया तो उछल कर खड़ा हो गया।

हजार-पांच सौ के नोटों की गड्डी। ये क्या हैं? और किसका है , मैं क्या करूंगा इसका?

ताबड़तोड़ प्रश्नो की बौछार कर दी रमेश ने।

वे आंखों में आंसू भरे मासूमियत से बोली-जी ये अपने ही हैं, मैंने जमा किए हैं।

क्या!!पर अभी तो पिछले महीने तुमसे मैंने पूछा था कि लोन की किश्त देनी है, दस-बीस हजार पड़े हों तो दे दो,तब तो तुमने मना कर दिया था,मुझे दोस्त से उधार लेने पड़े।

जी,वो छोड़ो ,अब आप इन्हें बदलवा दो बस।

बदलवा दो,आसान काम है क्या?आए कहां से?

जी घर खर्च में से बचाए।

इतने सारे सिर्फ घर खर्च या फिर चुपके-चुपके मेरे बटुए पर भी हाथ साफ किया था।

जी वो तो हर पत्नी का अधिकार होता है , मैंने कर लिया तो कौन-सा गुनाह कर दिया!

बड़ी मासूमियत से जबाव दे वे हंसने लगी।
रमेश सिर पकड़कर बैठ गया,उसे समझ में आ गया था कि पत्नियों को पति से ज्यादा पति के बटुए की चिंता होती है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक



Friday, December 13, 2019

अनंत यात्रा

रामनाथ के परिवार में आज खुशी का माहौल था।होता भी क्यों न,आखिर उनके
दोनों बेटों का विवाह तय हुआ था। विवाह भी दो सगी बहनों से।एक नया रिश्ता बनने जा रहा था, खुशियों ने उनके घर को महका
दिया था। रामनाथ का बड़ा बेटा बैक में और
छोटा बेटा होटल में मैनेजर थे ।संयोग से होने
वाली बहुएं भी सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं। विवाह की तिथि छह माह बाद तय हुई थी।घर में नित नयी योजनाएं बन रहीं थीं।
कैसे करना है ,क्या करना है,क्या थीम रखी
जाएगी विवाह स्थल की।कौन कैसे कपड़े पहनेगा,कार्ड कैसा होगा?
सभी रिश्तेदारों को बढ़िया रिटर्न गिफ्ट दिए जाएंगे।यही योजनाएं बनते-बनते और पूरा
करते पांच माह निकल गए।सबसे पहला मेहमान उनके घर आने वाला था ,उनकी बड़ी बहन और बच्चे।उनकी ट्रेन सुबह चार
बजे आने वाली थी , दोनों भाई बहन को
लाने स्टेशन जाने के निकल चुके थे ,लेकिन
अनहोनी का किसी को भी आभास नहीं था।
घर से स्टेशन पहुंचने में बीस मिनट लगते थे।
लेकिन रात में ट्रेफिक कम होने की वजह से
समय कम लगता था, दोनों भाई खुशी-खुशी
आराम से गाड़ी चलाते हुए जा रहे थे।सामने
रेड लाइट थी ।सिग्नल हरा होने पर उन्होंने
अपनी गाड़ी आगे बढ़ाई,पर ....उनकी वह यात्रा कभी पूरी नहीं हो सकी,रोंग साईड से
एक ट्रोला आया और उनकी गाड़ी को टक्कर मार के पलट गया।कार के ऊपर ट्रोले में लदी नमक की बोरियां गिर पड़ी और कार
पूरी तरह से उन बोरियों में दब गई। ट्रोले का
ड्राइवर भाग गया था ,उसे एक पल के लिए भी यह ख्याल न आया कि कार में कोई जिंदा हो सकता है।काफी देर बाद किसी भले-मानुष ने पुलिस को फोन किया, पुलिस आई तो उसे भी नहीं पता चला कि इन बोरियों के नीचे एक कार दबी है,उधर बहन
लगातार भाईयों को फोन कर रही थी ,रिंग जा रही थी ,पर कोई नहीं उठा रहा था, आखिर उसने पिता को फोन किया, रामनाथ
अचंभित हो उठे आखिर कहां गए वे दोनों?
उन्होंने बेटी को कहा कि वो रूके वे आ रहें हैं,उसी चौराहे से ,उसी रेडलाइट के पास से
वे गुजरे,इतना भयंकर एक्सीडेंट देख मन में
सोचा ,कितना लापरवाह है ये ट्रोलावाला! अच्छा है रात में ट्रेफिक नहीं रहता, नहीं तो
पता नहीं किसका घर उजड़ता !?
उन्हें क्या पता था कि उनका घर ही उजड़ चुका है। बेटों की चिंता सता रही थीं। कहां गए?बेटी को लेकर आ चुके थे।अब बेटों को
ढूंढने निकले ,सुबह के सात बज चुके थे,उसी
चौराहे से फिर गुजरे,नमक की बोरियां हटाई
जा रहीं थी,उसके नीचे कार झलकने लगी थी, वहां खड़ी भीड़ भौंचक्की हो उठी थी।
रामनाथ जी परेशान से वापस आ रहे थे।
पुलिस, एंबुलेंस देख ठिठक गए ।क्या हुआ
भाई? और एक्सीडेंट हो गया क्या? नहीं
रात की ही दबी है एक कार बोरियों के नीचे!
किसी को पता ही नहीं चला,पता नहीं कौन है बेचारे?
रामनाथ जी के पैर कांप रहे थे..आगे बढ़े और जैसे ही कार देगी..गश खाकर गिर पड़े।
उनका संसार उजड़ गया था.. बेटों के शव
निकालें जा चुके थे,यदि उस समय ही वह
ट्रोलेवाला पुलिस को सूचित कर देता तो
शायद कोई बच जाता।कैसी यात्रा पर निकल
गए थे बेटे! जहां खुशियों को होना चाहिए था, वहां मातम पसरा हुआ था।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक